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Saturday, September 26, 2015

ज़िन्दगी

हर बार वो मेरे पास आकर मुझसे कुछ कहती थी,
ख़ुशी हो या गम  हमेशा मुश्कुराती रहती थी ,
कभी दुसरो की ख़ुशी में अपने गम भुलाकर झूम लेती थि.

चाहती थी नसीब से कुछ और पर कुछ और ही वो पा लेती थी,
अंधेरो से घिरे इस कमरे में आशाओं के दीप जला लेती थी ,
कोशिशें तो बहोत की उसने आशा की किरण पाने की ,
पर  हर बार उसके पास जाते ही वो किरने कहीं खो जाती थी.

खुशबू के खो जाने के बाद भी बागीचे को महकाती थी ,
किसी के दूर जाने के बाद भी उसकी यादों को सजाती थी ,
चाहत तो उसे कभी नहीं मिली फिर भी वो सबको चाहती थी ,
टूटे हुए इस दिल को हमेशा प्यार से सहलाती थी।

हर एक हार के बाद भी हमेशा वो गिर कर उठ जाती थी,
पुरानी मात को भुलाकर हमेशा चुनौतीयो को अपनाती थी ,
पूछना तो हमने बहोत चाहा उसका नाम कभी नहीं बतलाती थी ,
एकबार खुद से ही उसने बताया के मौत से पहले मैं ज़िंदगी कहलाती थी. 

मेरा समय

कुछ माँगा था मैंने तुझसे  तू  मेरे पास आया था,
बहोत कुछ दिया तूने जब तू मेरे साथ ठहरा था,
तूने भी जाते हुए छोड़ दिया मुझे अजीब सी कश्मकश में,
क्योंकी सब की तरह तुझ पर भी समय का साया था.

आज फिर

आज फिर ज़िन्दगी वही मोड़ पर लेकर आई है ,
फर्क सिर्फ इतना है वो तू नहीं तेरी परछाई है.

आज फिर याद आ रहा है वो लम्हा,
जब तू जा रही थी मुझसे दूर और में देखता रहा.

आज फिर तेरी वो मुश्कुराहट गूंज रही है मेरे कानो में,
जिसको याद करके मेरे होंठ हलकी सी मुश्कुराहट से महक उठते थे.

आज फिर लग रहा है समय खेल रहा है मेरे साथ,
गुज़र रहा है हर एक लम्हा फिर से जो मैंने बिताया था तेरे साथ.

इत्तेफ़ाक़ ये है के आज फिर से दिल कह रहा है,
रोक लू तेरी परछाई को दूर जाने से और भर लू तुझे बहो मैं.

आज भी वाही सवाल पूछ रहा हु ज़िन्दगी से,
कब तू मेरे सामने आएगी और में वो लम्हे को वही रोक कर मौत की बाँहों में चला जाऊ.